शब्द के बेलगाम घोड़े पर सवार
हर सितारे को एक टापू की तरह टापते हुए मैं
घूम आई हूँ इस विस्तार में
जहाँ पदार्थ सिर्फ ध्वनि मात्र थे
और पकड़ के लटक जाने का कोई साधन नहीं था
एक चिर निद्रा में डूबे स्वप्न की तरह स्वीकृत
तर्कहीन, कारणहीन ध्वनि
जो डूबी भी थी तिरती भी थी
अंतस में थी बाहर भी
इस पूरे
तारामंडल ग्रहमंडल सूर्यलोक और अंतरिक्ष में
जिसे न सिर्फ सुना जा सकता है
बल्कि देखा जा सकता है
असंख्य असंख्य आँखों से
और पकड़ में नहीं आती थी
अनियंत्रित, अनतिक्रमित और पीत-वर्णी अनहुई आवाज
क्या वह ध्वनि मैं ही थी ?
और वह शब्द का घोडा तरल हवा सा
जो अंधड़ था या ज्वार
जो बहता भी था उड़ता भी था
चक्र भी था सैलाब भी
और यह आकाश जो खाली न था रीता न था
फक्कड़ न था
था ओजस्वी पावन
तारों का पिता
उड़ते थे तारे आकाश सब मिलजुल कर
वह दृश्य और दृष्टा मैं ही थी...!!!
भयानक था...
परीक्षा का समय
आनंद से पहले की घड़ी
क्या वह मैं ही थी
इस उजियारे अँधेरे जगत में फैली
एक कविता !
क्या वह शब्द मैं ही थी